Thursday 28 December 2017

मंगल ग्रह: इतिहास वर्तमान तथा भविष्य


इसरो के २०१३ में प्रक्षेपित मंगलयान द्वारा लिया गया मंगल ग्रह का चित्र (साभार: इसरो)
सौर मंडल के केंद्र में स्थित सूर्य से बढ़ती दूरी के आधार पर बुध (Mercury), शुक्र (Venus) और पृथ्वी के बाद मंगल (Mars) सौर मंडल का चौथा ग्रह है। सूर्य से मंगल ग्रह की दूरी करीब बाईस करोड़ उन्नासी लाख किलोमीटर है। प्राचीन काल से ही मंगल ग्रह मानव जाति के लिए कौतुहल का विषय रहा हैं। भारतीय खगोल/साहित्य में मंगल ग्रह को "लोहितांग" के नाम से भी जाना जाता है। नग्न आँखों से इस ग्रह का रंग लाल दिखता इसीलिए इसे प्राचीन ग्रंथों में "अंगारक" भी कहा गया है। प्राचीन बेबीलोनियाई सभ्यता में मंगल को "नेर्गल" (Nergal) के नाम से जाना जाता था। मिस्री सभ्यता में मंगल ग्रह को "होरएमआखेत" (Hor em Akhet ) और "होर देशुर" (Hor Deshur) के नाम से जाना जाता था। प्राचीन ग्रीस में इसे "एरोस एस्टर" (Aeros Aster) के नाम से जानते थे। बगदाद के अरब खगोलविद इसे “मरीख” (Mareekh) के नाम से जानते थे। प्राचीन रोम में इसे "मार्स" (Mars) के नाम से जाना जाता था और लाल रंग कारण इसे युद्ध का देवता माना जाता था। इसी नाम से, वर्तमान युग में इस ग्रह को जाना जाता है तथा अकादमिक अधययन और शोध में इसी नाम का प्रयोग होता है।


गैलिलियो गेलिली, इतिहास के प्रथम खगोलविद जिन्होंने टेलिस्कोप से आकाशीय पिंडों का अध्ययन किया। (चित्र साभार गूगल)
सत्रहवीं शताब्दी के "पुनर्जागरण काल" (Renaissance) के दौरान ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। प्रसिद्द खगोलविद गैलिलियो गैलिली (Galileo Galilei) ने मानव जाति के इतिहास में पहली बार टेलिस्कोप (दूरबीन) की सहायता से चन्द्रमा के विशालकाय गड्ढे (Craters) देखे, बृहस्पति (Jupiter) ग्रह की परिक्रमा करते उसके चार उपग्रह देखे और शनि (Saturn) के छल्ले (Rings) देखे। समय के साथ टेलिस्कोप की तकनीक में सुधार होते गए और बड़ी बड़ी टेलेस्कोप बनाई गयी, जिसके चलते ग्रहों की सतहों को पहले से और अधिक स्पष्टता के साथ देखा जाने लगा। पृथ्वी से टेलिस्कोप द्वारा अध्ययन से खगोलविदों को ज्ञात हो गया कि मंगल पर मौसम के बदलने के साथ-साथ ध्रुवीय क्षेत्रों का बर्फीला क्षेत्र बढ़ता और सिकुड़ता है तथा वहां पर धूल भरे तूफ़ान चलते है जिसकी वजह से ग्रह की सतह सप्ताहों तक ढकी रहती है। सन १८७७ में मंगल ग्रह के दो उपग्रहों की खोज हुई और इनके खोजकर्ता थे प्रोफ़ेसर एसफ हॉल (Asaph Hall) जो उस समय संयुक्त राज्य नौसेना वेधशाला (U.S. Naval Observatory) में कार्यरत थे। इन दोनों उपग्रहों के नाम यूनानी पौराणिक कथाओं के चरित्रों पर रखे गए, देइमोस, जिसका अर्थ है “पलायन” और फोबोस जिसका अर्थ है “डर”।


(चित्र साभार गूगल)
उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में जब टेलिस्कोप की तकनीक जो आज के समय से ज्यादा उन्नत नहीं थी, उनसे दृष्टि भ्रम होने की आशंका रहती थी। अन्तरिक्ष यानों द्वारा ग्रहों के नज़दीक जा कर उनका बारीकी से सर्वेक्षण और अध्ययन के तकनीक अभी भी ९० वर्ष भविष्य के गर्त में थी। इसीलिए पृथ्वी स्थित वेधशालाओं से किये गए अध्ययन से इस दौरान मंगल के बारे कई अवधारणाएं बनी जिसमे बाद में असत्य प्रमाणित हुई। बहुत से खगोलविदों को विश्वास था कि मंगल ग्रह पर जीवन हो सकता है। ईतावली खगोलविद जीओवानी शिआपरेली (Giovanni Schiaparelli) ने १८७७ में मंगल की सतह पर कुछ रेखाएं देखने का दावा किया, जिनको उन्होंने “कनाली” (Canali) की संज्ञा दी जिसका अर्थ होता है नाला/नाली। दुर्भाग्य से ईतावली शब्द “कनाली” का अनुवाद अंग्रेजी भाषा में “कैनाल” (Canal) से हो गया जिसका अर्थ होता है सिंचाई हेतु बनाई गयी कृत्रिम नहर अथवा नाली। इसका परिणाम यह हुआ कि कई खगोलविदों को इन पर विश्वास हो गया।

शियापरेली द्वारा तैयार किया गया मंगल का मानचित्र कनाली सहित। (चित्र साभार गूगल)
शौकिया खगोलविद पेर्सिवल लोवेल (Percival Lowell) ने इनका अध्ययन किया और उनको पूरा विश्वास था कि मंगल में कृत्रिम नहरों का जाल बिछा है जो की वहां के निवासियों ने कृषि कार्य हेतु बनायीं हैं और उन्होंने बाकायदा इसके नक़्शे तैयार किये और उन्हें प्रकाशित भी किया। हालांकि उस समय भी इन नहरों के अस्तित्व और उनके कृत्रिम होने की संभावना पर वैज्ञानिक वर्ग के बड़े खेमे में खासा संशय था लेकिन ठोस आधार पर कुछ नहीं कहा जा सकता था। इसलिए अगले कुछ दशाब्दियों तक इनके होने या न होने के अनुमान लगते रहे।

पर्सिवल लोवेल (मार्च १३, १८५५ - नवंबर १२, १९१६)

बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में, प्रक्षेपण तकनीक में अपार प्रगति के बाद, अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा (NASA) द्वारा भेजे गए मरिनर अन्तरिक्ष यानो (४,६,७ और ९) और वाइकिंग श्रृंखला के यानों एवं मंगल की सतह पर उतरने वाले लैंडर ने पहली बार मंगल के एकदम नज़दीक से छायाचित्र भेजे जो पृथ्वी पर स्थित बड़ी से बड़ी टेलिस्कोप एवं यन्त्र के लिए संभव नहीं था। मंगल की सतह की जो तस्वीरें मरिनर अन्तरिक्ष यान द्वारा भेजी गयी उससे स्पष्ट हो गया कि मंगल की सतह पृथ्वी के चंद्रमा और पृथ्वी के मरुस्थलों (रेगिस्तान) की तरह है और वहां किसी भी तरह की नहर या जीवन का नामोनिशान नहीं है।


मंगल की सतह से वाइकिंग लैंडर द्वारा प्राप्त प्रथम चित्र  

इस तरह से मंगल में कृत्रिम नहरों के अस्तित्व का विचार हमेशा के लिए खंडित हो गया। अध्ययन से पता चला कि मंगल के वायुमंडल में कार्बन-डाईआक्साइड की मात्रा ९५.९७ % है और वातावरण का दबाव पृथ्वी के समुद्रतल के दबाव का ०.६ % मात्र है। इस ग्रह पर कम वायुमंडल के दबाव के चलते न तो जल तरल रूप में रह सकता था और न ही जीवन लायक उचित तापमान हो सकता था। ये ग्रह (ध्रुवीय क्षेत्रों को छोड़कर) पूरी तरह से शुष्क है। मंगल के वायुमंडल में कार्बन-डाई-ऑक्साइड के बादल निर्मित होते रहते हैं लेकिन वहां कहीं भी वर्षा नहीं होती। सूर्य से आती अत्यंत हानिकारक एवं घातक परा-बैंगनी (Ultra Violet) विकिरणों को रोकने के लिए इस ग्रह में कोई चुम्बकीय आवरण नहीं है और ये विकिरण मंगल के क्षीण वायुमंडल को भेद कर सतह से टकराती रहती हैं। आज के युग में हम परा-बैंगनी विकिरण का उपयोग सर्जरी के औजारों एवं, जल-खाद्यान अदि को कीट-मुक्त और साफ़ बनाने के लिए करते है और उसके अन्य उपयोग भी हैं।

वर्तमान: भले ही मंगल ग्रह पर जीवन की संभावनाएं लगभग ख़त्म हैं फिर भी मंगल ग्रह भौगोलिक दृष्टि से काफी रोचक है। ये ग्रह पृथ्वी की तुलना में छोटा है और इसका व्यास (Diameter), इसकी विषुवत रेखा (Equator) पर मात्र छह हज़ार सात सौ उन्नासी (६,७७९) किलोमीटर है। इसके दिन की अवधि २४ घंटा और ४० मिनट की है। इसको अपनी कक्षा में सूर्य की परिक्रमा करने में लगभग छह सौ सत्तासी (६८७) दिन लगते है जो लगभग पृथ्वी के दो वर्षों के बराबर की अवधि है। मंगल के मिशन जैसे कि वाइकिंग लैंडर (Viking Landers) १ और २ (१९७४) और बाद के मिशन जैसे कि पाथफाइंडर (Pathfinder) (११९७), स्पिरिट एवं औपौर्च्युनीटी रोवर (Spirit and Opportunity)(२००४), क्यूरिओसिटी रोवर (Curiosity Rover) (२०१२) जो मंगल की सतह पर वर्षों से चहलकदमी कर तरह तरह के परीक्षण कर रहे हैं जिसमे पत्थर, मिट्टी इत्यादि पर जानकारी हासिल की जा रही है। अभी तक प्राप्त जानकारी के अनुसार अति-प्राचीन काल में मंगल ग्रह का वायुमंडल आज की तुलना में कहीं अधिक घना था बल्कि प्रमाण यह भी मिलता है कि कम समय के लिए ही सही पर कभी मंगल पर पानी या उसकी तरह का तरल पदार्थ बहता था। मंगल पर प्राचीन नाले, नदी और समुद्रतट के प्रमाण मिलते हैं। नदी नाले वाले संभावित स्थानों में पत्थरों में पानी या उसके जैसे किसी तरल पदार्थ के बहाव द्वारा किये गए क्षरण (erosion) के प्रत्यक्ष प्रमाण मिलते हैं। मंगल के पुरातन इतिहास में शायद कोई बृहद घटना हुई जिसके चलते यहाँ का वायुमंडल क्षीण हो गया और जल धीरे धीरे विलुप्त हो गया या ध्रुवीय क्षेत्रों में कैद हो गया और यह ग्रह शुष्क हो गया जैसे के आज है। मंगल ग्रह की अन्य भौगोलिक विशेषता है और वह है इसके उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर स्थित ठोस कार्बन-डाई-ऑक्साइड की हिम की परतें, जिनके नीचे जल-हिम (Water Ice) की बर्फ होने की पुष्टि हुई है। और जैसा कि २००८ में मंगल के ध्रुव पर उतरे फ़ीनिक्स यान (Phoenix Lander)के परीक्षणों के बाद ज्ञात हुआ है वहां पर भूमिगत (sub-surface) जल के पुख्ता प्रमाण प्राप्त हुए हैं। वर्ष २०१५ में नासा (NASA) ने आधिकारिक तौर पर मंगल में जल (खारा जल) के होने की पुष्टि, एक लम्बे समय से चल रहे मार्स रेकॉनेसा ऑर्बिटर (Mars Reconnaisance Orbiter) मिशन के परीक्षणों के अध्ययन के उपरान्त, कर दी है। यह काफी सकारात्मक खोज है जिससे कम से कम सुदूर भविष्य में जब कभी पृथ्वी से अन्तरिक्ष यात्री मंगल पर जायेंगे तो कम से कम उन्हें शायद जल की समस्या जूझना न पड़े। फिलहाल इसपर और अधिक खोज और शोध की ज़रुरत है कि यह जल मानव उपयोग के लिए सुरक्षित है या नहीं। जल की खोज से संभव है कि मंगल पर भूमिगत जल के नज़दीक हमे सूक्ष्म जीव-जीवन के प्रमाण भी मिले और अगर ऐसा होता है तो यह उस समय की सबसे क्रांतिकारी खोज होगी जो जीवन के प्रति हमारी सोच को पूरी तरह से बदल देगी। फिलहाल इन प्रश्नों के उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में है।
साभार: विकिपीडिआ
मंगल भले ही आकार में पृथ्वी से छोटा हो और सौर मंडल के छोटे ग्रहों में उसकी गिनती होती हो मगर सौर मंडल का सबसे विशालकाय ज्वालामुखी अगर कहीं है तो वह मंगल पर ही है। इस ज्वालामुखी को ओलम्पस मोंस (Olympus Mons) के नाम से जाना जाता है और यह ज्वालामुखी मंगल के थार्सिस (Tharsis) नामक क्षेत्र में स्थित है। इसके तल से शिखर तक की ऊँचाई ६६००० फीट अर्थात २२ किलोमीटर की है जो कि पृथ्वी पर स्थित हिमालय की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवेरेस्ट (ऊँ.२९१८५ फीट) से ढाई-गुणा अधिक है। चूंकि यह एक ढालनुमा आकृति का ज्वालामुखी है इसलिए इसे “Shield Volcano” के श्रेणी में रखा गया है और इसका कुल व्यास ६०० किलोमीटर का है। यह इतना बड़ा और ऊंचा है कि तलहटी पर खड़े व्यक्ति को इसका शिखर नहीं दिखेगा और शिखर पर खड़े व्यक्ति को इसका धरातल नहीं दिखेगा। इसका पूर्ण रूप अन्तरिक्ष से ही दिखेगा।
तीन अन्य विशाल ज्वालामुखी भी इस क्षेत्र में पाए जाते हैं जिनके नाम हैं अर्सिया मोंस (Arsia Mons), पैवोनिस मोंस (Pavonis Mons) और आस्क्रेअस मोंस (Ascraeus Mons) जिन्हें भी Shield Volcano के रूप में श्रेणीगत किया गया है। वर्तमान में ये सभी ज्वालामुखी निष्क्रिय (dormant) अवस्था में हैं। आगामी अंकों में हम मंगल के इन ज्वालामुखियों और अन्य भौगोलिक संरचनाओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

भविष्य: आज के वर्तमान समय में जब हम पृथ्वी से बाहर उन स्थानों को देखते हैं जहाँ कि मनुष्य भविष्य में बस्तियां स्थापित करेगा तो मंगल ग्रह सबसे सुगम विकल्प के तौर पर देखा जाता है। क्योंकि सौर मंडल के अन्य ग्रहों की तुलना में, मंगल पृथ्वी से काफी मिलता जुलता ग्रह है। मंगल पर ठोस सतह है, वहां पर हिम क्षेत्र है और सूर्य की परिक्रमा के साथ साथ वहां पर शीत बसंत ग्रीष्म और शरद ऋतुएँ आती है। शुक्र ग्रह (Venus) भले ही पृथ्वी के बराबर है लेकिन वहां का वायुमंडल विषाक्त और दमघोटू है। वहां पर सतह पर तापमान ४६२ डिग्री सेल्सिअस है इसलिए वहां जीवन के आसार नगण्य है। बृहस्पति (Jupiter) शनि (Saturn) अरुण (Uranus) वरुण (Neptune) ग्रह विशाल गैसीय एवं तरल हाइड्रोजन और हीलियम के पिण्ड हैं जिन पर पृथ्वी जैसी ठोस सतह नहीं है और इन ग्रहों पर मानव यान उतारना खतरनाक है। इसीलिए मंगल ही एक मात्र ग्रह है जहाँ पर मनुष्य भविष्य में जा कर रह सकता है और उसे आबाद कर सकता है। हालांकि मंगल को मनुष्य के रहने लायक बनाने के लिए कई शताब्दियाँ भी लग सकती है। हमारे पास विकल्प है कि हम मंगल पर रोबोटिक यंत्र भेजे जो वहां पर काम करके धरती-सधाना (Terraforming) करें।



(चित्र साभार: गूगल)

धीरे धीरे मंगल के वायुमंडल पर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करके सूर्य से आनेवाली गर्मी को विलुप्त होने से रोका जाये जिससे सतह का तापमान बढे। एक बार तापमान एक सीमा तक बढ़ गया फिर ग्रीनहाउस बनाकार वनस्पतियों को उगाया जा सकता है जो सूर्य के किरणों से प्रकाश-संश्लेषण (Photosynthesis) की प्रक्रिया द्वारा कार्बन-डाई-ऑक्साइड सोखेंगी और ऑक्सीजन उत्सर्जित करेंगी और धीरे धीरे मंगल के वायुमंडल और सतह में बदलाव आएंगे जैसे की ध्रुवीय हिम खंड पिघलेंगे और नदी नालों का सृजन होगा जो पर्वय्वरण की लिए आवश्यक है। अभी हमारे पास इतनी उच्च तकनीक नहीं है और न संसाधन कि हम कुछ इस तरह के लक्ष्य पर प्रयासरत हो। ऐसा नहीं है कि यह जटिल और दुर्गम लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता लेकिन मंगल के वायु एवं भूमि परिवर्तन के लक्ष्य में अनेक बाधाएं है जिनका समाधान किये बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकेगा।

मंगल के अध्ययन ने जहाँ हमे इस सुदूर ग्रह से परिचित करवाया और हमारी जानकरी को आगे बढाया वहीँ दूसरी ओर मंगल में नहरों की अवधारणा का पूरी तरह से अप्रमाणित होना हमे यह सीख देता है कि विज्ञान में ठोस प्रमाण के साथ साथ संशय का भी होना बहुत ज़रूरी है। विज्ञान को प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष प्रमाण और उनके सत्यापन की ज़रुरत होती है। विभिन्न मानकों एवं परीक्षणों उतीर्ण होने और पूर्ण सत्यापन के साथ ही कोई खोज या सिद्धांत स्वीकृत होता है।

और अब लेख का अंत एक दिलचस्प एवं रोचक वाक्ये से करेंगे। रेडियो का आविष्कार सन १८९५ में हुआ और यह अविष्कार तेज़ी के साथ फैला। सन १९०१ में फ्रांस में एक प्रतियोगिता आयोजित की गयी जिसमे घोषणा की गयी कि जो कोई भी व्यक्ति रेडियो द्वारा अन्य ग्रह के प्राणियों से संपर्क स्थापित करेगा उसे १ लाख फ्रैंक्स का इनाम दिया जायेगा। इस प्रतियोगिता से मंगल ग्रह को बाहर रखा गया था क्योंकि आयोजकों का मानना था कि मंगल ग्रह के निवासियों से रेडियो संपर्क स्थापित करना बेहद आसान है!

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